Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Monday, January 25, 2010

मेरी डायरी

 आजकल मैं जितने भी जान पहचान के लोगों से मिल रहा हूँ उनसे उनका हाल चाल पूछने के साथ एक बात जरूर पूछ लेता हूँ कि भाई साहब क्या आप डायरी लिखते हैं. अगर जवाब हाँ में होता है तो उनसे गुहार करता हूँ कि भैया इस मुलाक़ात का ज़िक्र कहीं अपनी डायरी में मत कर देना और हमारा कोई कर्जा-खर्चा हो तो मुझ से निसंकोच माँग लेना. भूल-चूक लेनी देनी. मैं नहीं चाहता कि मेरा नाम आपकी डायरी में आए. कल को मुझ पर प्रैशर आएगा और फिर मुझ जैसे इंसान को भी मॉरल ग्राउंड पर त्यागपत्र देना पड़ेगा.

लोगों की अपनी अपनी राय है. वे ज़माने गए जब टी.वी.,वी.सी.आर. से आप रौब गाँठ सकते थे.अब तो कम्प्युटर युग है. पेजर और सेल फोन से भी लोगों पर रौब नहीं पड़ता है. हमारे एक फटेहाल दोस्त लोगों की चिरौरी करते फिर रहे हैं की भैया मेरी भी जून संवार दो अपनी डायरी में मेरा भी नाम लिख दो रकम जो तुम्हारे दिल में आए लिख देना. वो माधुरीजी का एक गाना है न एक..दो..तीन... बस कुछ भी लिख दो. हुसैन साहब से माफी माँग लेंगे. आखिर साब माधुरी जी पर फ़िदा होने का अधिकार हमें भी है. चार-छह बड़े लोगों की डायरी में नाम रहेगा तो हम भी सोसाइटी में उठने-बैठने लायक हो जायेंगे. नहीं तो आजकल लोग बात बात पर यह कह के झिड़क देते हैं कि हटाओ यार वो तो बेचारा नौकरी-पेशा है. कोई और बात करो. इसके चलते जो लोग डायरी नहीं लिखते हैं वे मुझे अव्वल दर्जे के वाहियात नज़र आने लगे हैं.

डायरी को आज जो आला दर्ज़ा हासिल हुआ है वह यूँ ही नहीं हुआ है. आज डायरी आर.डी.एक्स. से भी ज्यादा खतरनाक हथियारों में शामिल है. कोई कह रहा था कि डायरी ने आज हिंदुस्तान में ऐसे ही तबाही मचाई है जैसी सन 1919 में जनरल डायर ने मचाई थी. अंग्रेजों के पास डायर था तो हमारे पास डायरी है. क्या खा के मुक़ाबला करोगे. हम तो पचास साल में ही इतने समृद्ध हो गए हैं कि चारा हो या चारा मशीन, बैंक स्केम हो या रेल इंजन, तोप हो या तंदूर, चीनी आयात हो सरकारी आवास आबंटन कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जिसमें हमने अपनी प्रतिभा का लोहा न मनवाया हो. आबंटन का संधि विच्छेद करें तो आप इसका मर्म समझ जायेंगे. आ बाँटें. अंग्रेजों के यहाँ तो धूम मचाने को राजघराने के चोरी से खींचे गए चित्र या टेप चाहिए. जबकि यहाँ डायरी में लिखे शब्द या तो कहिए 'ढाई आखर ' ही सर्वशक्तिमान हैं. डायरी तो 'महाठगिनी' निकली. अच्छे अच्छे ब्रह्मचारियों का चरित्र निखर आया है. फिराक साब ने क्या खूब कहा था :

विसाल के बाद जरा आईना तो देख

तेरे हुस्न की दोशीज़गी निखर आई है

शेर बकरी हो गए हैं. बकरी चूजे बन गयी हैं. चूजे कहते फिर रहे हैं ' वोटर मेरे मैं नहीं माखन खायो' . रातोंरात सबकी न्यायपालिका में इतनी आस्था हो गयी है कि कुछ कहते नहीं बनता. ज्यादा कहने से कोर्ट की अवमानना हो सकती है. कहीं धर लिया गया और तिहाड़ भेज दिया तो अभी तो बिस्कुट किंग के ज़माने का स्टाफ ही है वहाँ. फिर मुझे तो ऐसा कोई रक्तचाप भी नहीं कि उपचार में ही रिमांड अवधि निकल जाए. अब तो सब फ़ैसला फ़ाज़िल जज और काबिल वोटर के हाथों बता रहे हैं.

डायरी लिखना कब और कैसे चालू हुआ इसका इतिहास साफ़ साफ़ नहीं मिलता है . यद्यपि धोखाधड़ी और झूठ का इतिहास काफी स्पष्ट है तथा सभी एकमत से इसे आदम और हव्वा के ज़माने से मानते हैं. कालांतर में बड़ी बड़ी बही और खाते मिनी डायरी में समा गए. धर्मखाता,धर्मकाँटा ,धर्मभाई,धर्मपत्नी आदि में से धर्म या तो गायब हो गया या उसकी परिभाषाएं सुविधानुसार बदल दी गई हैं. सोचिए एक छोटी सी डायरी ने कितने मारे हैं. और ऐसे मंज़र पर लाकर मारे हैं (चुनाव सर पर हैं ) कि पानी भी न मिले

सोचता हूँ मैं भी कुछ डायरी में लिख रखूँ. सर्वप्रथम अपने निकम्मे पड़ोसियों का नाम लिखुंगा. एक अपने टीचर का नाम लिखुंगा कि मुझे पास करने के उसने पचास लाख लिए. वैसे दो साल एक ही क्लास में फेल होने के बाद उन्होने खुद ही मुझे दयावश पास कर दिया था. मैं चाहूँगा कि मेरे टीचर को तिहाड़ में मुर्गा बनाया जाए ताकि उसे पता लगे कि मुर्गा खाना जितना  आसान है मुर्गा बनना उतना ही मुश्किल है.

सोचता हूँ अपने बॉस के नाम के आगे भी लगे हाथों पचास लाख की एंट्री कर दूँ. कह दूँगा कि   मुझे अच्छी सी.आर. और प्रमोशन देने के बदले में दिये थे बड़ा मज़ा आयेगा. जब बच्चू कोर्ट में चेहरे पर तौलिया लपेटे घिघियाते फिरेंगे. मकान-मालिक निर्दयी को भी मैं  दो-चार करोड़ रुपये देना चाहता हूँ. इसके पास मेरे लिए अनगिनत पाबंदियाँ हैं. मैं चाहूँगा कि  मेरे थर्ड क्लास मालिक-मकान को थर्ड डिग्री टॉर्चर किया जाए. उसे जेल में अलग काल-कोठरी में रखा जाए ताकि वह खुद देख सके कि किरायेदारों को दी जानेवाली कोठरी जिसे वह वनरूम सेट कहता है और काल-कोठरी में कोई फर्क नहीं है.

मेरे दो चार रिश्तेदार और भी हैं जिनसे मुझे पुराना हिसाब चुकाना है. सारी उम्र वे मुझसे मुँह छुपाते रहे कि मैं कहीं उधार न माँग लूँ या गर्मियों की छुट्टियों में कहीं उनके यहाँ डेरा न डाल दूँ. उन्हे भी मैं दस-बीस करोड़ देने वाला हूँ.

फिर ये रिश्तेदार कितना ही नकारते फिरें कि ये हमें क्या देगा ये तो खुद भुकख़ड़ है. मगर मुझे यकीन है हमारी पुलिस इनकी बातों में न आयेगी.



( जनसत्ता 31/3/1996 )
( जैन हवाला काण्ड में डायरी से प्रेरित )







No comments:

Post a Comment