इस शहर की भीड़ में
अब कहाँ दोस्त भी
दोस्त की तरह मिलते हैं.
यूँ तो सारे अज़ीज़ इसी शहर में हैं
ज़माना कुछ ऐसा बदला है
काम पड़े तभी
दोस्त की तरह मिलते हैं.
शहर भर में बदनाम हो गये
हम अपनी आदत से परेशाँ
जिससे मिलते हैं
दोस्त की तरह मिलते हैं.
कोई क्या दोस्ती निभाये इस दौर में
बचपन के दोस्त भी अब कहाँ
दोस्त की तरह मिलते हैं.
अपना शहर छोड़ तेरे शहर में आ गये
बड़ा सुकून है दिल को
तेरे यहाँ तो अजनबी भी
दोस्त की तरह मिलते हैं.
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मैं क़यामत तक करता तेरा इंतज़ार
पर सब कहते हैं इंसान की एक उम्र होती है.
कितने ही पक्के क्यों न हो सब कहते हैं
रिश्तों की एक उम्र होती है.
नादाँ हैं वो जो सोचते हैं
बिगड़ने की एक उम्र होती है.
सच तो यह है सुधरने की एक उम्र होती है.
.......
एक लम्हे को तुमसे मिले
और क्या से क्या हो गयी
मेरी ज़िन्दगी.
चाहत ने दी चाहत
दर चाहत और ज्यादा
अज़ब अनकही प्यास हो गयी
मेरी ज़िन्दगी.
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तमाम उम्र तेरी चाहत में बनते सँवरते रहे
हम दुनिया से बेखबर थे, बेखबर रहे
लाख चाह कर भी हम तेरे जैसे न बन सके
कहीं भी रहे हमेशा खबर में रहे.
देर सबेर मंजिल मिल ही जाती गर सरे-राह होते
पर क्या कीजे तुमसे मिलने की धुन में
हम तमाम उम्र सफ़र में रहे.
...........
सदियों मेरी चाहत,मेरी बेखुदी का
सिलसिला रही है तू
तेरे दम से रही रगे-जां में हरकत
मेरी ज़िन्दगी का हसीन वलवला रही है तू
मेरे दर्द को एक हस्ती अता की
सचमुच बड़ी करमफरमा रही है तू
यूँ इसे मत तोड़ कुछ तो ख्याल कर
आखिर ज़िन्दगी भर इसी दिल में रही है तू.
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उसके मिजाज़ को हमसे बेहतर कौन समझा है
हमने उसका हर नाज़ उठा रखा है.
अब ये भी नहीं हम कभी खफा ही न हों
बस इतना है हमने ये काम कल पे उठा रखा है.
ज़ज्बा-ए-इश्क फलफूल रहा है आज भी
कहने को इसने आसमान सर पे उठा रखा है.
अपनी बंदगी खुद करा लेती है
क़ाफ़िर जवानी ने वो अहद उठा रखा है.
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तुम चले आओ ख़त पाते ही
जहाँ तक बादल हैं रास्ता साफ़ है
और आज धूप भी नहीं
समुद्र हिलोरें ले रहा चांदनी से मिलने को
दूर बस एक अकेली नाव है
और आज धूप भी नहीं
कोयल की कूक है नए फूल और खुश बहार है
कुछ मेरा भी ख़ुशी पर हक है
और आज धूप भी नहीं
तमन्ना जवान है,दिल पे काबू
न कल था न आज
और फिर आज तो धूप भी नहीं.
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ठण्ड से मर गया कल रात एक भिखारी
कम्बल ले कर देर से आये
नेता जी मेरे शहर में.
अंधे कुँए में फिर एक लाश मिली है
रोटी का ब्याज शरीर से लेते हैं
महाजन मेरे शहर में.
कुछ ज्यादा ही डरे डरे हैं लोग
पुलिस मना रही है शालीनता
सप्ताह मेरे शहर में.
भयानक चेहरों को देख, नाहक ही डर गये लोग
हर चेहरे पर दूसरा चेहरा
लाजिमी है मेरे शहर में.
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अपने पुराने कागजों में ढूँढना
शायद मेरा पता निकल आये
सज़ा पर नहीं शिकवा मुझे
अपने गरेबां में एक बार झाँकना
कौन जाने शायद
तुम्हारी ही खता निकल आये
आज से मैखाना बंद है
इस ऐलान के नहीं पाबन्द हम
मेरे लायक तू चाहे तो साक़ी
तेरी आँखों में ही निकल आये
शहर में मेरे दुश्मनों की
सरगर्मी बताई जाती है
ढूँढने चला तो सब
पुराने दोस्त निकल आये.
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फुर्सत कहाँ उसे जो तेरे तेरे गम की दास्ताँ सुने
यार तूने किसी और को अपना हमनवां बनाया होता
उनसे नज़रे इनायत की उम्मीद
जो खुद ही नज़र चुराते हैं ज़माने की नज़र से
यार तूने किसी और को अपना निगहेबां बनाया होता
सोचा वो रो देंगे मेरी तारीकी ज़िन्दगी सुनकर
और वो खिलखिला कर हँस पड़े
यार तूने किसी और को अपना फ़साना सुनाया होता
इस नियामत के तमन्नाई ही रहे ताउम्र
रूठे रहते हम और यार ने भी कभी मनाया होता
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जहाँ रहती हों आबादियों खंडहरों में
मुझे ले चलो उन्ही हसीन शहरों में
जिस्म की क़ैद से मैं निजात पा जाता
मेरे शहर में तो ख्यालात भी रहते हैं पहरों में
दरिया को आज फिर किसी सैलाब का डर है
भूखी माँ कल बच्चों सहित डूबी है लहरों में
लोग कहते हैं वो जन्म से अंधा था
फिर रात रात किसे ढूंढता था वो भीड़ के चेहरों में .
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