और लो जी लो ! आखिर उत्तरी कोरिया ने भी परमाणु विस्फोट कर ही लिया। सारा विश्व, खासकर अपने को बिलौटा' (कैट) समझने वाले देश तो हक्केबक्के रह गए हैं। हैं !हमने कीया तो कीया। ये पिद्दी .....उत्तरी कोरिया को क्या सूझी। रे भई ! रोटी की फिकर कर। उत्तर कोरियाई लोग अलग इधर-उधर इठलाते घूम रहे हैं। मानों बस अब उनकी हर मुश्किल हल हो गई है। या कहिए अब उन पर कोई मुसीबत आ ही कैसे सकती है। आखिर उन पर हर मुश्किल, हर मुसीबत का उत्तर है और वो है -परमाणु बम। हम परमाणु बम बोएंगे, काटेंगे, पहनेंगे, खाएंगे तुमको क्या?
सन् 1974 में याद है जब पोखरन की किसी पोखर में भारत ने पहली बार परमाणु विस्फोट किया था तो अमेरिका की ‘टाइम' पत्रिका में एक कार्टून छपा था। जिसमें संभ्रांत ‘न्यूक्लियर क्लब' जिसके तब केवल गिनेचुने देश ही सदस्य थे एक भारतीय को सिगार मुंह में दबाए उन सदस्य लोगों से बात करते दिखाया गया था। “अब मैं भी आपके क्लब का सदस्य बन गया।“ आप कहेंगे इसमें कार्टून जैसी क्या बात है। कार्टून जैसी बात ये है कि उसमें भारतीय को केवल लंगोटी में दिखाया था। जबकि अन्य सदस्य सूट टाई में थे। यह बात विश्व के गले, खासकर एडवांस देशों के उतर ही नहीं रही थी कि भारत जैसा गरीब, फटेहाल, ऋणग्रस्त, जाहिल, भ्रष्ट देश भी परमाणु क्षमता विकसित कर सकता है। वो भी बिना हमें कानों कान खबर हुए। भारतीयों को नैपकिन, छुरीकाँटा बापरना तो आता नहीं, ये क्या खा कर परमाणु क्षमता बापरेंगे।
संसार के चौधरी देश आज फिर उसी हालत में दांतों तले उंगली दबा रहे हैं। ये उत्तरी कोरिया को क्या पड़ी थी। परमाणु बम,परमाणु विस्फोट, परमाणु क्षमता जो भी है......को विकसित करने की। शुरु से इन चौधरी देशों की मानसिकता उत्तरी कोरियाई मार्का देशों के प्रति यही रही है, हमारे अलावा सब निकम्मे हैं इन्हें कोई हक नहीं पहुँचता कि इस तरह के महंगे खिलौनों से खेलें। दूसरे ये गरीब, जाहिल, बे अक्लों का क्या भरोसा कल को लड़ाई ही कर बैठें। आग से खेलते हैं। गँवार कही के।
दर असल अंतरिक्ष खोज हो, चाँद पर जाने का प्रोग्राम हो, अंटार्कटिका अभियान हो या परमाणु कार्यक्रम अमेरिका जैसे देश इसे अपनी बपौती मानकर चलते हैं। बस ये उनका ही जन्मसिद्ध अधिकार है कि वे इसमें कूदें, तैरे, डूबें या मरें। उनका मानना है कि बाकी सब कम अक्ल हैं अतः विश्वशांति के लिए खतरा हैं। इस तरह के बड़े भाई साहबपने में हम भी कोई कम नहीं हैं। अधिकतर पड़ोसी देश हम को एक ‘बुली बिग ब्रदर' ही समझते हैं। भले हम लाख नकारते फिरें कि हमारी नीयत साफ है। आखिर बड़े भाई साहब लोग भी तो सब कुछ हमारे भले के लिए ही कहते हैं, करते हैं। एक मास्टरजी बेंत से मारने के बाद विद्यार्थी को समझा रहे थे मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ। विद्यार्थी बोला मास्टरजी प्यार तो मैं भी आपको बहुत करता हूँ पर अभी छोटा हूँ।
हिंदुस्तान ने भी उत्तरीकोरिया की इस ‘हरकत’की निंदा की है. हमारी हालत रेल के उस अनारक्षित डिब्बे की तरह है जिसमें पहले से बैठे लोग हमें घुसने नहीं दे रहे थे......... हम जैसे तैसे उसमें घुस जाते हैं तो हम भी औरों के सुर में सुर मिलाकर अन्य किसी को डिब्बे में नहीं घुसने देते। टोकने लगते हैं. कहां चले आ रहे हो जी इसमें नहीं.......बिल्कुल जगह नहीं है। एक घोड़ेवाले ने देखा कि उसके घोड़े पर किसी ने पेंट कर दिया है। वह आगबबूला हो गया। जोर जोर से ललकारने लगा ये किसका काम है। वो उसे जिंदा नहीं छोड़ेगा आदि आदि। सुनकर एक हट्टा कट्टा, बलशाली, खूंखार आदमी आया बोला “क्या बात है, क्यों चिल्ला रहे हो.....मैंने पेंट किया है”। घोड़ेवाला बोला “जी कुछ नहीं मैं तो ये कहना चाह रहा था कि पहला कोट सूख गया है”
सच तो ये ही है जो सदियों पहले कहा जा चुका है :
‘समरथ को नहीं कोऊ दोष गुंसाई।'
सन् 1974 में याद है जब पोखरन की किसी पोखर में भारत ने पहली बार परमाणु विस्फोट किया था तो अमेरिका की ‘टाइम' पत्रिका में एक कार्टून छपा था। जिसमें संभ्रांत ‘न्यूक्लियर क्लब' जिसके तब केवल गिनेचुने देश ही सदस्य थे एक भारतीय को सिगार मुंह में दबाए उन सदस्य लोगों से बात करते दिखाया गया था। “अब मैं भी आपके क्लब का सदस्य बन गया।“ आप कहेंगे इसमें कार्टून जैसी क्या बात है। कार्टून जैसी बात ये है कि उसमें भारतीय को केवल लंगोटी में दिखाया था। जबकि अन्य सदस्य सूट टाई में थे। यह बात विश्व के गले, खासकर एडवांस देशों के उतर ही नहीं रही थी कि भारत जैसा गरीब, फटेहाल, ऋणग्रस्त, जाहिल, भ्रष्ट देश भी परमाणु क्षमता विकसित कर सकता है। वो भी बिना हमें कानों कान खबर हुए। भारतीयों को नैपकिन, छुरीकाँटा बापरना तो आता नहीं, ये क्या खा कर परमाणु क्षमता बापरेंगे।
संसार के चौधरी देश आज फिर उसी हालत में दांतों तले उंगली दबा रहे हैं। ये उत्तरी कोरिया को क्या पड़ी थी। परमाणु बम,परमाणु विस्फोट, परमाणु क्षमता जो भी है......को विकसित करने की। शुरु से इन चौधरी देशों की मानसिकता उत्तरी कोरियाई मार्का देशों के प्रति यही रही है, हमारे अलावा सब निकम्मे हैं इन्हें कोई हक नहीं पहुँचता कि इस तरह के महंगे खिलौनों से खेलें। दूसरे ये गरीब, जाहिल, बे अक्लों का क्या भरोसा कल को लड़ाई ही कर बैठें। आग से खेलते हैं। गँवार कही के।
दर असल अंतरिक्ष खोज हो, चाँद पर जाने का प्रोग्राम हो, अंटार्कटिका अभियान हो या परमाणु कार्यक्रम अमेरिका जैसे देश इसे अपनी बपौती मानकर चलते हैं। बस ये उनका ही जन्मसिद्ध अधिकार है कि वे इसमें कूदें, तैरे, डूबें या मरें। उनका मानना है कि बाकी सब कम अक्ल हैं अतः विश्वशांति के लिए खतरा हैं। इस तरह के बड़े भाई साहबपने में हम भी कोई कम नहीं हैं। अधिकतर पड़ोसी देश हम को एक ‘बुली बिग ब्रदर' ही समझते हैं। भले हम लाख नकारते फिरें कि हमारी नीयत साफ है। आखिर बड़े भाई साहब लोग भी तो सब कुछ हमारे भले के लिए ही कहते हैं, करते हैं। एक मास्टरजी बेंत से मारने के बाद विद्यार्थी को समझा रहे थे मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ। विद्यार्थी बोला मास्टरजी प्यार तो मैं भी आपको बहुत करता हूँ पर अभी छोटा हूँ।
हिंदुस्तान ने भी उत्तरीकोरिया की इस ‘हरकत’की निंदा की है. हमारी हालत रेल के उस अनारक्षित डिब्बे की तरह है जिसमें पहले से बैठे लोग हमें घुसने नहीं दे रहे थे......... हम जैसे तैसे उसमें घुस जाते हैं तो हम भी औरों के सुर में सुर मिलाकर अन्य किसी को डिब्बे में नहीं घुसने देते। टोकने लगते हैं. कहां चले आ रहे हो जी इसमें नहीं.......बिल्कुल जगह नहीं है। एक घोड़ेवाले ने देखा कि उसके घोड़े पर किसी ने पेंट कर दिया है। वह आगबबूला हो गया। जोर जोर से ललकारने लगा ये किसका काम है। वो उसे जिंदा नहीं छोड़ेगा आदि आदि। सुनकर एक हट्टा कट्टा, बलशाली, खूंखार आदमी आया बोला “क्या बात है, क्यों चिल्ला रहे हो.....मैंने पेंट किया है”। घोड़ेवाला बोला “जी कुछ नहीं मैं तो ये कहना चाह रहा था कि पहला कोट सूख गया है”
सच तो ये ही है जो सदियों पहले कहा जा चुका है :
‘समरथ को नहीं कोऊ दोष गुंसाई।'
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