या झुका ही लो इन पलकों को
या उठा ही लो इन पलकों को
मगर ऐ मेरी जान-ऐ-बहारा
नज़रों को यूँ आधी झुका न रखो.
या खिलखिला कर फिजा में
बिखेर दो चश्म-ऐ-नूर के
या होठों को बंद कर पैदा कर दो
मंजर समंदर की सजीदगी के
मगर यूँ दबी-दबी मुस्कराहट
होठों पे रखा न करो
या हम पर नज़र ही न डाला करो
या भरपूर एक नज़र देख लो
यह शौके नज़र का क्या दस्तूर है
देख देख कर अनदेखा न करो
या हमारी तुम तवज्जुह छोड़ दो
या फिर मुझसे ही बयान
मेरे हिज्र-ऐ-वीरां का सुनो
इस बेताबी को क्या नाम दूँ मैं
राह चलतों से मेरा हाल पूछा न करो
ऐ मेरी जान-ऐ-बहारा
नज़रों को यूँ आधी झुकी रखा न करो.
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तेरी मुहब्बत का यही दस्तूर है तो यूँ ही सही
बहार पर रहे तेरा मुक़म्मल अख्तियार
वीरां से मुहब्बत की तोहमत
मेरे सर पर ही सही.
आजिज़ है मेरे खतों से तेरा कासिद
फिर तुझे मेरा ख्याल आये न आये
तेरे एक ही ख़त को सुबह-शाम पढ़ना
मेरी किस्मत ही सही.
तेरे ये चंद ख़त मेरी
ज़िन्दगी भर की दौलत है
इन्हें मेरे पास ही रहने दे,तेरा यह
मुझ पर एक और अहसान ही सही
तेरी मुहब्बत . .
यूँ तो तेरी याद काफी थी
शायद मेरा अँधेरा ही गहरा हो
चलो यह भी इलज़ाम
मुझ पर ही सही .
मुझे तू ही नहीं वह ज़हर भी प्यारा है
जो तेरे दस्त-ऐ-नाज़ुक से आये
अब चाहे तुझे मुझ से मेरे सेहरा से
अदावत ही सही
कागज़ की दौलत से तेरी
दुनिया के कारोबार चला करते हैं
तेरी नज़र में मैं मुफलिस हूँ
मुफलिस ही सही
तू आबाद रहे शादाब रहे
रंजोगम के साए से दूर
मेरे अरमानों पे तेरी बेरुखी का क़फ़न ही सही
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