Ravi ki duniya

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Friday, January 22, 2010

आओ इस्तीफ़ा इस्तीफ़ा खेलें



बचपन में हम सब चोर-सिपाही,आइस-पाइस,घर-घर,डॉक्टर-डॉक्टर खेलते थे. बुढ़ापे में हमारे नेता इस्तीफ़ा-इस्तीफ़ा खेलते हैं. तू इस्तीफ़ा दे.नहीं पहले तू दे . तेरी बारी है. मैं क्यों दूँ. जा मैं नहीं देता. मैं तेरे साथ खेलता ही नहीं. अच्छा चल मैं देता हूँ.. पर एक शर्त है तू प्रॉमिस कर .. तू मेरा इस्तीफ़ा मंजूर नहीं करेगा. नहीं तो मैं नहीं खेलूंगा तेरे साथ...
जनता कभी कौतूहल से कभी बोर हो के ये तमाशा देखती रहती है. जनता इसके लिए अभिशप्त है. कभी लाल बहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना पर इस्तीफ़ा दे दिया था . आज ? आज के बहादुर हर दुर्घटना मैं डटे रहते हैं.
अमां हटाओ भी ! चलो कोई और बात करते हैं. इस्तीफ़ा माँगने के पीछे कहानी है. इस्तीफ़ा लेने के पीछे कहानी है. देने के पीछे कहानी है.इस्तीफ़ा मंजूर करने के पीछे कहानी है. नामंजूर करने के पीछे कहानी है. इतनी सारी कहानियों के चलते कौन कहता है देश में साहित्य का भविष्य अंधकारमय है.
सोचता हूँ पड़ोस के मनोहारी नेता इस्तीफ़ा देते हैं तो देश फड़क उठता है.सारे चेनल उनसे तबियत पानी पूछने चले आते हैं. टी.वी. अख़बार में बड़े-बड़े वक्तव्य और काउंटर वक्तव्य आते है. धाँय..धाँय ...ठा..वो मारा ..ये बचा. और आखिरकार खबर आती है दो दिन हो गए वो दफ़्तर नही गए.बेचारा दफ़्तर. बेचारी फ़ाइलें. बेचारे क्लाईंट जिनके लाखों करोड़ों फ़ाइलों में फँसे हैं.
फर्ज़ करो मैं इस्तीफ़ा देता हूँ तो क्या होगा ?. कुछ भी तो नहीं. कुछ भी हो कमसेकम मेरे बीवी बच्चों को छोड़ कर किसी को रंचमात्र भी दुख न होगा. इसका मुझे दुख भरा यकीन है. जूनियर सोचेंगे चलो राह आसान हुई.कब से कुंडली मारे बैठा था. अब पदोन्नति होगी. वरिष्ठ सोचेंगे क्या फर्क पड़ता है. कोई दूसरा सीट संभालेगा. और इस से भी ज्यादा हाँ में हाँ मिलाएगा. न कोई टी.वी. चेनल,न कोई अख़बार इसे छापेगा.मेरा दूधवाला और कामवाली बाई भी न पूछेंगे कि ये साब अखा दिन घर में क्यूँ पड़ा रहता है.फिर क्या करूँ कि मैं भी  टी.वी. और अख़बार में खबर बन के छपूँ  लोग मुझसे भी कहें अभी रुको .. जल्दबाजी न करो...देश का सवाल है. देश को तेरे जैसे कलमघिस्सू की बहुत दरकार है. अपना नहीं तो देश का तो ख्याल कर निखट्टू. भूल गया क्या तब्बू का डांस .. रुक..रुक..रुक.. अरे बाबा रुक.
अजी मैं तो रुका ही रहूँ. पर कोई कहे तो सही. पर मुझे पक्का यकीन है. कोई रुकने को न कहेगा. इन्हें मैं जानता हूँ. ये नालायक तो ऐसे हैं कि रातों-रात इस्तीफ़ा मंजूर कराके मेरे मुँह पे दे मारेंगे . चल दफा हो. देश का, जनता का, दफ़्तर का इन्हें तनिक भी ख्याल नहीं. मेरी हर एक बुराई बढ़ा-चढ़ा कर बताएंगे और ऐसे दिखाएंगे कि अच्छा हुआ इस्तीफ़ा देके चला गया. नहीं तो निकाला ही जाता. उसके रंग ढंग ऐसे ही थे.बकरे का ताऊ ..कब तक खैर मनाता.
ये सोच-सोच कर मेरा दिल भरा आता है. ये दो तरह के पैमाने क्यों ? क्या इसलिये कि मैंने नेतागिरी नहीं की. खूब मन लगा कर पढ़ाई की ताकि अच्छी सी नौकरी पा सकूँ. क्या इसलिये कि मैंने हडतालें नहीं कराईं.हिंदु-मुसलमान में फसाद नहीं कराया . क्या इसलिये कि मैंने देश ख़तरे में है या धर्म खतरे में है या क़ौम ख़तरे में है का नारा नहीं दिया न ही उन पर विश्वास किया.
अब आप ही बताइये मेरे जैसा आदमी कैसे इस्तीफ़ा-इस्तीफ़ा खेल सकता है खेलने को और कोई गेम भी तो नहीं. फर्ज़ करो मैं क्रिकेट खेलना चाहूँ ? क्या भविष्य है ?  गुटबाजी के चलते सेलेक्ट ही न हो पाऊँगा. खेलूंगा तो बाद में. हॉकी का हाल और भी बुरा है. ध्यान चंद थे तो हिन्दुस्तान ध्यान देता था. अब न हिन्दुस्तान ध्यान देता है, न शाहरुख खान, न हॉकी पदाधिकारी. एक गेम और है जिसमें अख़बार के पेज थ्री पर नियमित पब्लिसिटी पक्की है. वो है बेशुमार दौलत हासिल कर पार्टियाँ दूँ  जिसमें एक नपे-तुले मिक्स्चर का कॉक्टेल हो और उस कॉक्टेल में निश्चित मात्रा में दो-चार एक्टर्स हों. दो-चार सोशलाइटस हों. खासकर उस किस्म के जिनकी वैवाहिक स्थिति संदेहास्पद हो. दो-चार फ़ैशन डिजाइनर्स हों जिनकी यौन प्राथमिकताएं थोड़ा हट कर हों. एक अदद लेखक हो जो हो तो हिन्दुस्तानी मगर लिखता अंग्रेजी में हो. छपता विदेश में हो और पहली किताब से ही विवादास्पद हो गया हो, उन्हें होटल में बुलाऊँ , मौका ? लो और सुनो . मौकों की क्या कमी है. अपने कुत्ते का बर्थ डे हो सकता है. एक धडधड़ाता सा फ़ैशन शो होगा. जिस में कपड़े कमसेकम और जिस्म ज्यादा से ज्यादा दिखे. मुफ्त की शराब हो. मुर्गा-मीट हो. लो जी हो गयी पब्लिसिटी

आखिर वो ही न चाहते हो इस्तीफ़ा देकर भी.


 

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