Ravi ki duniya

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Tuesday, January 12, 2010

बनना मेरे मकान का हेरिटेज

यह सुनकर दिल गद्‌गद्‌ हुआ कि सरकार ने उपन्यास सम्राट के मकान को सरकारी स्मारक घोषित कर दिया है। अब मैं चैन से मर सकूँगा। मैं बेकार ही सोच सोच कर परेशान था कि जीते जी सरकार ने मेरी सुधि नहीं ली कि इस विशाल और महान देश के छोटे से कोने में एक महान लेखक पड़े पड़े सड़ रहा है और कागज काले कर रहा है, लेकिन अब फिकर नहीं। अब ये तय है कि जीते जी न सही, मरने के सौ डेढ़ सौ साल बाद तो मेरी भी कद्र होगी। बस सौ डेढ़ सौ साल की ही तो बात है। मुझे भी कोई जल्दी नहीं।

दूसरा बड़ा सवाल यह है कि उपन्यास सम्राट तो गाँव में रहते थे। वहाँ एक अदद मकान उन्हें नसीब था। मगर मैं तो शहर में रहता हूँ। वो भी बम्बई में। अब इस महानगर में मेरी खोली ढूँढ़ने में स्मारक समिति वालों को इतने पापाड़ बेलने पड़ेंगे कि वो अपने मकान का पता भूल जायेंगे. मेरे मरने के बाद सेठ को दूसरा किरायेदार मुश्किल से मिल पायेगा. मुम्बई में पगड़ी बहुत है। और पगड़ी के पैसे देते देते आदमी के बाकी कपड़े उतरने की नौबत आ जाती है।
हो सकता है आज जहाँ मेरी चाल है वहाँ कोई मल्टीप्लैक्स या शॉपिंग मॉल बन जाए। तब क्या होगा? मैं सोच सोच कर परेशान हूँ। जो तो मेरी खोली बनी रही तो मैं चाहूँगा अगल बगल की दस पाँच खोलियाँ भी खाली करा ली जाएं। क्योंकि एक तो इससे मुझे पड़ोसियों से बदला लेने का मौका मिलेगा, जिन्होंने हमेशा मेरी खाट खड़ी रखी। दूसरे, जीते जी मैं चाहे जैसे रहा हूँ स्मारक से तो लगे कि अगला भी समृद्ध लेखक था और भव्य मकान में रहता था। मैं नहीं चाहता कि लोगों को पता चले कि इस लेखक का राशन उधार आता था और वह प्रकाशकों के दफ्तर दफ्तर चप्पल फटकारता घूमता था।
वैसे मेरे मकान में खूबियाँ भी बहुत हैं। ये यों भी म्यूजियम में रखे जाने लायक है। बारिश में बारिश का आनंद मकान के अंदर ही मिल जाता है। पूरी वातानुकूलित खोली है। सर्दियों में गर्म, क्योंकि ठंडी हवा आने जाने का कोई साधन नहीं है। बच्चू कहीं से मेरा घर तो दूर मेरी गली में नहीं घुस सकती है। गर्मियों में हम बाहर छत पे सोते हैं। कमरे में सोएंगे तो निश्चिंत ही सुबह तक मरे पाए जाएँगे। कारण कि बिजली विभाग हम पर सदैव कृपालु रहता है। बहुधा स्मारकों में आपने ऐसे खोजी लोगों को देखा होगा जो पुरातत्वविदों की सी बेचैनी चेहरे पर लिए टॉयलेट ढूँढ़ते फिरते हैं। वहाँ आपको फकीरों, बादशाहों की रूह मिलना आसान है, मगर टॉयलेट ढूँढ़े से नहीं मिल सकेगा। क्योंकि टॉयलेट सरकारी लोग बनाते हैं। अतः वह उसे उतना ही जटिल बना देते हैं जितने कि उनके दफ्तर की विभिन्न प्रक्रियाएँ होती हैं। एक दफ्तर में तो टॉयलेट में ताला लगा रहता था और उसकी चाबियाँ कुछ गिनीचुनी वी.आई.पी. किस्म की महिलाओं ने हथियाई हुई थी। वे टॉयलेट की तिजोरी जैसी सुरक्षा' करती थी। बिना चाबी वहाँ चिड़िया भी पर नहीं मार सकती थी। चिड़े को तो चाबी मिलनी ही नहीं थी (लेडीज टॉयलेट जो था)। दूसरी बात ये कि स्मारकों में साफ सफाई, पुताई धुलाई को लेकर बहुत मचमच रहती है। पूछो तो वही फंड का रोना। एक बात यह है कि सरकार इस स्मारक के लिए अगर टिकट लगाएगी भी तो देखने कौन आएगा? ये कोई डाँसबार तो है नहीं कि अंदर जाकर किसी तंग गली में हो तो भी लोग छुपते छुपाते बिना किसी विज्ञापन के बड़ी तादाद में आ जाते हैं। यहाँ टिकट लेकर दर्शकों के आने की संभावना उतनी ही है, जितनी आपसे वोट ले लेने के बाद नेताओं के वापस आने की रहती है। प्रवेश मुफ्त करने में जो रिस्क है आप भी जानते हैं, मैं भी जानता हूँ। तमाम लुक्का लोग, जुआरी, चरसी सभी आने जाने लगेंगे और थोड़े दिनों में स्मारक को अपना घर ही बताने लगेंगे।
पुरातत्व वालों को ये तत्वज्ञान है। अतः वे इन झमेलों में पड़ते ही नहीं बस एक तख्ती लगाई और ‘पूरातत्व' खत्म समझो। मेरा स्मारक समिति वालों से अनुरोध है कि मैंने स्मारकों का हश्र देखा है। बड़े बड़े पीर, पैगंबरों, बादशाह, नेताओं की समाधि, स्मारकों की बदहाली और बदइंतजामी देखी है। क्यों नहीं मेरे जीते जी ही वो इस बारे में कुछ सोचते। जैसे कि मेरे मकान की छत से पानी टपकता है। ¨ दीवारों का पलस्तर गिरता है। बरसात में दरवाजे या तो बंद नहीं होते और बंद हो जायें तो खुलते नहीं। अगर वो छोटी मोटी टूट फूट की मरम्मत अभी करवा दें तो मैं उनका बहुत शुक्रगुजार रहूँगा और अपने जीते जी ही उनके नाम अपनी विरासत करने को तैयार हूँ।



किसी शायर ने क्या खूब कहा है:


मौत में भी दिखूँ जिन्दगी सा

ओढ़ा देना एक कफन मैला सा मुझको












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