Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Sunday, January 24, 2010

आपके लिए

नहीं समझी सरकार जनता की पीर
निर्धन पीता रहा अपना ही रक्त नीर
हम पीछे खींचते रहे मूल्यों को
मगर महँगाई बन गयी 'द्रोपदी का चीर'

(नवभारत टाइम्स 24/2/1974 )
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घी तेल गेहूँ कोयला
दूध और डबल रोटी
बन गए है 'बाली' जैसे
ग्राहक के सामने आते ही
दुगने हो जाते हैं (केवल दाम में )
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हर बार हमारी सरकार
प्रयत्न करती है न रहें बेकार
किन्तु हर बार खाली जाता है उसका दांव
गरीबी बन गयी है 'अंगद का पाँव'

(नवभारत टाइम्स 12/5/1974 )
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(पेरोडी -- खिलौना जान कर...)
नवभारत टाइम्स 9/7/1973

बस की क्यू जानकर तुम तो
मेरा दिल तोड़ जाते हो
यहाँ राशन में खड़े लोगों की तरह
मुझे किसके सहारे छोड़ जाते हो
सुनो मेरे दिल से न लो बदला
तेल और कोयले का
डालडा तो मैं छोड़ चुका
अब तो आदी हो गया हूँ,कुलछे-छोले का
कि मैं चल भी नहीं सकता
और तुम सोने के भाव की तरह दौड़ जाते हो
बस की क्यू जानकर ...
था जिस 'पे-कमिशन' का मुझको सहारा
उसी ने मुझको पाक दरिंदों की तरह मारा
गुजारा मेरा मुझसे चलता नहीं
कर्ज़ बढ़ जाता है
सिगरेट और ब्लेड की तरह हर बार खर्च तुम्हारा
बढ़ जाता है
मैं पाँच पैसे का ग्लास पी नहीं सकता
और तुम ब्लैक में 'कोक' पी जाते हो
बस की क्यू जानकर ....
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मेरे विचार बंद हैं दिमाग में
जैसे कोई अचार,डिब्बे के किसी भाग में
प्रकट नहीं होते विचार
खुलता नहीं अचार
विचार जवान होते हैं
अचार पक जाता है
फिर भी विचारों का कलेवर नहीं होता
अचार का सेवन नहीं होता
मैं क्रुद्ध हो जाता हूँ
गंभीर, अप्रसन्न होता हूँ
और घुट जाते हैं विचार
जैसे डिब्बे में बंद
सड़ जाता है अचार
(नवभारत टाइम्स 6/4/1975 )
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ये क्या हो गया देश का हाल
कदम कदम पर आंदोलन जगह जगह हड़ताल
सत्याग्रह का नाम ले असत्याग्रह हो रहा
भूखहडताल की आड़ में दुराग्रह हो रहा
मंत्री से संतरी तक चाहता है वेतन वृद्धि
आप लाख विरोध करें छोड़ेंगे नहीं ये अपनी कुर्सी
क्या यही था शहीदों का वतन,क्या यही था गांधी का स्वप्न
एक पर नहीं खाने को रोटी,दूसरे के पास लाखों का धन
एक बहाता शाम तक पसीना,फिर भी अभिशिप्त है उसका जीना
कौन है वो ? कहाँ है वो ?,जिसने हक इनका छीना
आज विद्यार्थी का अनशन है,तो कल अध्यापकों का प्रदर्शन
चाहे रेल का चालक हो,या हो यान का पाइलट
कमेटी का कर्मचारी हो या बैंक का क्लर्क
सबकी है आवाज यही महँगाई घटाओ,गरीबी हटाओ,वेतन बढ़ाओ
किन्तु क्या इसका दोषी हर व्यक्ति स्वयं नहीं
जिसको मौका लगता है छोडता नहीं वो अपना लाभ
एक हाथ से विरोध करता सरकार का,दूसरे से ढूँढता अपना स्वार्थ
एक शोषक शोषण करता असंख्य शोषितों को
एक विश्वासघात असफल कर देता सभी कोशिशों को
एक व्यापारी ठगता क्या असंख्य ग्राहकों को नहीं
एक सिंह मारता क्या असंख्य मृगशावकों को नहीं
फिर दोषी कौन ? क्या तुम स्वयं नहीं ?
उठो कि जैसे तूफ़ान उठता है,बढ़ो कि जैसे सूर्य बढ़ता है
ढूँढ लो अपने अंदर बैठे लुटेरे को,दूर कर दो हृदय में छाए अंधेरे को
मार्ग की हर बाधा को हटा दो,जो बाँधे तुम्हें ऐसे बंधन को मिटा दो
जब कोई नियम तुम्हें व्यर्थ सताये
शासक अपने अत्याचारों को समय का चलन बताये
समझ लो महत्ता समाप्त हो गयी शांति की
समय को आवश्यकता है क्रांति की .

( नवभारत टाइम्स 13/1/1974 )
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प्रत्येक का है बस यही अरमा
मिले एक अच्छी सी माँ
जो दुगनी करे खुशी
बाँट ले बेटों का सदमा
जीजाबाई सी आदर्श हो
देख जिसे मन में हर्ष हो
आँखों में बसे जिसके सुख-संसार
हाथों में जिसके रहे हमेशा
आशीषों का आगार
वाणी से जिसकी आ जाए
हमारे जीवन में बहार
हमारी हर असफलता पर वो
दे नवचेतन का उपहार
भरी रहे हमारे जीवन में
उसके मधुर प्यार के फुहार


(नवभारत टाइम्स 26/8/1973)
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